जीने की कला,निराले दयानंद से सीखो

"निराले दयानन्द - जीने वालों में" 


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जीना एक कला है। कुछ लोग सब कुछ होने पर भी रोते रहते हैं पर कुछ लोग कुछ न होने पर भी हंसते हैं। देव दयानन्द जीने की कला जानते थे। वे विचित्र थे। वे अपने दुःखों में हंसते थे तथा पराए दुःख में रोते थे। एक विधवा अपने पुत्र की लाश जब बिना कफन के बहा चली थी तब वह कितना रोए थे। इसके विपरीत वह अपने दुःखों में न रोए और न घबराए अपितु सदा मुस्कुराते रहे। गाली देने वालों को कहते थे कि जब इनके पास हैं ही गालियां तो ये बेचारे और क्या देवें ? पत्थर मारने वालों को कहते कि जहां आज पत्थर फेंकते हैं कभी वहां फूल बरसेंगे तथा कभी हंस कर कहते कि कितने अच्छे लोग हैं, मैंने पत्थर पूजने के विषय में समझाया तो इन्होंने पत्थर फेंकने ही प्रारंभ कर दिए। अपने ऊपर मिट्टी फेंकने पर कहते थे कि उद्यान लगाते समय माली का धूल से सनना स्वाभाविक ही है - न गिला, न शिकवा, न शिकायत। एक ब्राह्मण ने पान में विष दे दिया। इनका भक्त सैयद मुहम्मद तहसीलदार जब अपराधी को उनके सामने लाया तो पूछा कि यही है आप की हत्या का प्रयत्न करने वाला पापी। कहो इसे क्या दंड दिया जाए ? दयालु दयानन्द ने कहा - इसे छोड़ दो। मैं संसार को कैद नहीं अपितु कैद से छुड़वाने आया हूं। 


कितना व्यस्त था उनका जीवन। दो बजे रात्रि में उठकर सैर तथा ईश्वरआराधना, फिर लेखन, भाषण, शास्त्रार्थ तथा शंका समाधान। कहां से समय लाते होंगे इतने कार्यों के लिए ? सर चकरा जाता है सोचकर। दिनभर ज्ञान पिपासु घेरे रहते तथा दयानन्द वह महान था जिसके किनारे से कोई प्यासा नहीं जाता था। व्यस्त जीवन था परंतु प्रफुल्लतापूर्ण। हास्य की छटा मुख पर सदा विराजमान रहती। लोग चिढ़ाना चाहें पर वह हंसते रहते थे। एक व्यक्ति ने उन्हें चिढ़ाने की सोची। जा पहुंचा उनके पास और बोला कि महाराज जरा अपना कमंडलु देना मुझे शिवजी पर जल चढ़ाना है। सोचा चिढ़ेंगे और अपशब्द कहेंगे, बड़ा मजा आएगा। किंतु वहां चिढ़ने का क्या काम ? महर्षि जी कहने लगे कि अपने ही कमंडलु से जल चढ़ा दो। वह बोला कि यदि मेरे पास कमंडलु होता तो आप से मांगने ही क्यों आता ? महाराज बोले कि मुंह तो है उसमें पानी भरकर कुल्ला कर दो। आया था चिढ़ाने पर खिसिया कर चला गया। काशी शास्त्रार्थ में विद्वानों द्वारा छल से यह कहने पर कि दयानन्द हार गया, जन समुदाय ने ईंट पत्थर फेंक कर तथा कुवाक्यों से अपमानित करने में अपने मन की पूरी भड़ास निकाली। अन्य कोई होता तो क्षोभ के मारे उठता भी न। विशेषतया विद्वान पंडितों के कुटिल व्यवहार को देखकर। किन्तु रात्रि में दयानन्द से मिलने जब ईश्वरसिंह निर्मल पहुंचे तो देखा कि उनके मुख पर विषाद की एक रेखा भी नहीं। मानो कि कुछ हुआ ही न हो। हजारों घटनाएं हैं ऐसी पर दयानन्द सब में स्थिर और दृढ़ रहे। ऐसा होता क्यों न, दयानन्द जीवन दर्शन के विशेषज्ञ जो थे। वे स्थितप्रज्ञ योगी थे - मान अपमान से ऊपर उठे हुए। उनका सारा जीवन ही जीवन-कला का साक्षात निदर्शन है। वह जीने वालों में भी निराले थे।


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स्त्रोत - निराले दयानन्द।
लेखक - डॉ सत्यव्रत 'राजेश'।
प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।


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