मृत्यु-दण्ड से मुक्ति


मृत्यु-दण्ड से मुक्ति


मा न एकस्मिन्नागसि, मा द्वयोरुतत्रिषु ।
वधीर्मा शूर भूरिषु ।


अथर्व ८-४५-३४


शब्दार्थ :-
                     मा                       =                  नहीं
                     नः                       =                  हमारे
                     एकस्मिन्              =                  एक (अपराध) पर
                     आगसि                =                  अपराध पर 
                     मा                       =                  नहीं
                     द्वयोरुत त्रिषु          =                  दो या तीन (अपराध) पर
                     वधीः मा                =                  वध मत करो
                     भूरिषु                   =                  अनेकों पर



            भावार्थ :-हे शूर वीर इन्द्र ! हमें एक -दो तीन अथवा अनेक अपराधों पर मृत्यु दण्ड से मुक्ति दो ताकि हम अपना सुधार कर सकें।


विचार विन्दु :


         १. जीवन वृत्तरूप है रेखा नहीं है।                    २. एक जीवन में सुधार सम्भव नहीं।
         ३. पाप क्षमा नहीं होते।                                   ४. सुधार का मार्ग क्या है ?


व्याख्या


          इस मंत्र में भगवान से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो ! आप तो इन्द्रों के भी इन्द्र, बलवानों से भी बलवान हैं। साथ ही परम दयालु और परम कृपालु भी हैं । मेरी आपसे प्रार्थना है कि यदि मझसे एक पाप हो जाये तो मुझे मृत्यु-दण्ड मत देना । यदि दो या तीन हो जायें या कई पाप हो जाये तो भी मुझे मृत्युदण्ड मत देना, मुझे सुधरने का अवसर दीजिए। आप यदि मृत्यु-दण्ड दे देंगे या जीवन समाप्त कर देगे तो मैं उस पाप से अपना सुधार कैसे करूंगा ? हे दयालु ! आप हम सुधरने का अवसर प्रदान करें।


           संसार में मुख्यतः दो सिद्धान्त प्रचलन में है । एक तो सेमेटिक सम्प्रदाय-यहूदी. ईसाई मसलमानों के है जो एक ही जन्म मानते
हैं । भगवान् की इच्छा हुई और उन्होंने जैसे शरीर बनाया वैसे ही इसमें जीव को डाल दिया । इन सम्प्रदायों के अनुसार, सरल रेखा की तरह जीवन एक बिन्दु से चलता है और मृत्यु के समय दूसरे बिन्दु पर शेष हो जाता है, अर्थात् पुनजन्म नहीं होता। इन सम्प्रदायों में कोई मनुष्य, कोई पश, कोई शेर या भेड़िया या सांप आदि क्यों होता है ? योनि का निर्धारण किस आधार पर होता है ?


           इसका कोई तर्क बुद्धि संगत उत्तर नहीं मिलता । इन मतों म परमेश्वर जीव का निर्माण करते हैं, कहां से करते हैं, किस उपादान से करते हैं, इसका कुछ पता नहीं है। 


           वेद के सिद्धान्तों के अनुसार और भारतीय-मनीषा में जैन, बौद्ध आदि सब सम्प्रदाय पुनर्जन्म मानते हैं। भारत के चिन्तन में जन्म-मरण एक वृत्त की तरह आदि-अंतहीन हैं, जन्म-मरण, मरणजन्म यह चक्र चलता ही रहता हैं स्वामी शंकराचार्य ने कहा था -


'पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम्,
पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।' 


           यहां जीवन और मरण का चक्र मोक्ष तक चलता रहता है, जीव अमर है । मरता है शरीर, पुनर्जन्म में शरीर ही पैदा होता है। 


          प्रभु ने यह संसार उसमें हमारा जीवन और असंख्य प्राणियों का जीवन क्यों बनाया ? भारतीय ऋषियों ने इस प्रश्न पर चिन्तन किया हैं । उनका कहना हैं – 'भोगापवर्थम् दृश्यम्।' यह संसार भोग और अपवर्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए बनाया गया हैं । पुण्य का भोग सुख और पाप का भोग दुःख मिलता है । मनुष्य को छोड़कर इतर पशु-प्राणियों की योनियां भोग योनि हैं । उन्हें कर्म का फल नहीं मिलता । वे तो अपनी योनियों में भोग भोगते रहते हैं । मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो कर्म भी करता है और भोग भी भोगता है । मनुष्य-योनि कर्म करने, भोग भोगने और अपवर्ग की साधना करने की योनि है । मनुष्य को मनुष्य जीवन इसलिए मिलता हैं कि वह अपने पाप-कर्मों का दण्ड भोग ले और पुण्य - कर्म करता चले जिससे भोग के द्वारा अपवर्ग का मार्ग प्रशस्त हो अर्थात् भोग इस प्रकार हो कि मोक्ष की प्राप्ति हो सके l 


            मनुष्य एक विचारशील प्राणी है भगवान् ने इसे कर्म करने की स्वतंत्रता दे रखी है मनुष्य का अधिकार है कि वह कर्म करे । फल देना परमेश्वर के हाथ में है । मनुष्य अपने कर्मों पर विचार करता है, दूसरे के कर्मों पर विचार करता है, अपने सुख-दुःख और उनके कारणो पर विचार करता है, दूसरो के सुख-दुःख और उनके कर्मों पर भी विचार करता है, और उनसे शिक्षा लेता है कि हम अच्छे कर्म करें, बुरे कर्मों से बचें, जिससे कि हमें पाप के फल से बचने में सहायता मिले मनुष्य पुण्य करता है तो उसका अच्छा फल मिलता
है । विद्यार्थी परिश्रम करता है, तो अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण होता है । कृषक या व्यवसायी परिश्रम करते हैं तो उन्हें अच्छा लाभ मिलता है पुण्य-कर्मो का फल सुख है और पाप - कर्मो का फल दुःख है । यह मनुष्य को प्रत्यक्ष ही दीखता है । विचारशील व्यक्ति चिन्तन करता है कि हमारे जीवन में पुण्य-कर्म ही हो. ताकि हम कष्ट , रोग, दुःख से बच सकें।


कर्म फल की व्यवस्था-
           कर्म की व्यवस्थाकभी-कभी कई लोगों के मन में यह बात उठ सकती है कि जिस जीवन में, जिस शरीर से, जो पाप-पुण्य हुआ है, उसका फल, उसी जीवन में उसी शरीर को मिल जाता है । प्रस्तुत मंत्र में इस विचार से हट कर परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभो ! हमारी भूलों को सुधारने के लिए हमें एक एकाधिक बार (भूरिषु) अवसर दीजिए ।


            कर्म फल का सिद्धान्त यह है कि हमारे कर्मों के फल तीन प्रकार के कर्मों पर निर्भर करते है- (१) क्रियमाण कर्म - जो हम अभी कर रहे हैं और जिनका फल हमको अभी मिल जाता है। जैसे किसी नगारष्ठ भाजन किया तो उसका पाचन बिगड़ गया या स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन किया, खानेपीने, सोने-जागने में व्यतिक्रम किया तो उसका स्वास्थ्य बिगड़ गया । (२) संचित कर्म ऐसे कर्म हैं जो संस्कारगत हो जाते हैं और इनका परिणाम स्थूल शरीर से ऊपर जाकर सूक्ष्म शरीर को भी प्रभावित कर देता है। ऐसे संचित कर्मो के फल वर्तमान जन्म में और भावी जन्मा में मिलते रहते हैं । कभी-कभी सक्ष्म शरीर के साथ ही सूक्ष्म शरीर में स्थित मन, बुद्धि, चित्त, अहकार आदि भी इनसे प्रभावित हो जाते हैं मन, बुद्धि, चित्त आदि की अच्छाई, बुराई, मेधा, प्रज्ञा आदि की सबलता निर्बलता जन्म से ही प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं । ये सब संचित कर्मों के ही फल हैं कई बार शरीर के रोग भी पूर्व जन्म से आते हैं।


             इनकी व्यवस्था सर्वशक्तिमान परम दयाल, परम कारुणिक परमेश्वर की व्यवस्था में निहित रहती है। किस संचित कर्म का भोग कब प्राप्त होगा, यह परमेश्वर की व्यवस्था पर ही है । संचित कर्मों का यह भोग इस जीवन में भी मिल सकता है और भावी जीवनों में भी मिल सकता है । यह परमेश्वर की निराली व्यवस्था, मनुष्य की समझ के लिए असम्भव नहीं भी हो तो भी अति कठिन योग की साधना से साध्य होगी । इस व्यवस्था को समझने के लिए एक सीधा सा उदाहरण लेते हैं- धरती में अनेक प्रकार के बीज सुरक्षित रहते हैं । जब जिनके उगने, जमने का समय आता है, अनुकूल परिस्थिति पाकर, वे उसी समय उग जाते हैंआषाढ़ में उगने वाले बीज आषाढ़ में उगेंगे और आश्विन या माघ-फाल्गुन में उगने वाले बीज वहीं पड़े रहेंगे और अपने समय पर अनुकूल परिस्थिति पाकर वे भी उगने के लिए संचित रहेंगे। इसी प्रकार संचित कर्मों की व्यवस्था है । अनुकूल समय आने पर परम प्रभु परमेश्वर उनका भोग हमें दे देते हैं।


             (३) प्रारब्ध कर्म - जिन संचित कर्मों का भोग मिलना आरम्भ हो जाता है उन्हें प्रारब्ध (प्र +आरब्ध आरम्भ किया हुआ) कहते हैं । संचित कर्म प्रारब्ध का कारण बनते हैं और संचित कर्मों का कारण मनुष्य का कर्म या पुरुषार्थ है । इसीलिए कहा जाता है कि पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा होता है क्योंकि पुरुषार्थ ही प्रारब्ध और संचित कर्मों का निर्माता है ।


             कर्मों के संबंध में पाप-पुण्य के भेद के संबंध में एक और सच्चाई ध्यान में रखने योग्य है । पाप और पुण्य का आपस में जोड़-घटाव, लेन-देन नहीं होता । पाप और पुण्य विषम राशियां है जैसे गणित में १० घोड़े ऋण-६गाय नहीं होगा वैसे ही १०० पुण्य - ४० पाप भी नहीं होगा । पुण्य का फलसख अलग मिलेगा और पाप का फल-दुख अलग मिलेगा । गंगा का जल निर्मल पवित्र हो तो उसमें स्नान करने से शरीर तो शुद्ध होता है किन्तु किसी भी कर्म से पाप नहीं कटेगा, उसे भोगना ही पड़ेगा


              'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्'  
             भारतीय ऋषियों ने एक यश 'बलिवेश्व देव यज्ञ' बनाया है । जिसका अर्थ यह है कि सम्पर्ण विश्व देव और उसे हमें बलि, उपहार देना चाहिए । इस यज्ञ में कोढ़ी, लूले-लंगड़े आदि को विशेष रूप से सहायता दी जाती है और शिक्षा ली जाती है कि हम ऐसी कोई भूल न कर बैठे कि हमें भी अन्धा, लूला-लंगड़ा या कोढ़ी बनकर दुःख भोगना पड़े।


.             एक विद्वान ने यहां तक कल्पना की है कि भिखारी झोली फैलाकर मांगता है-मां ! भीख दो, रोटी को भखे-प्यासे को सहारा
दो । विचारशील प्राणी शिक्षा लेता है कि हम कोई पाप न कर बैठे कि जिससे हमें भी अन्धा, लूला बनकर भोगना न पड़ेयह तो सर्वथा सत्य है कि पाप कभी क्षमा नहीं होते, उन्हें भोगना ही पड़ता है । अतः भगवान् से प्रार्थना करते हैं-जगदीश्वर ! हमारा जीवन समाप्त मत करो, हमें सुधरने का अवसर दो । एक जन्म में न सुधर सकें तो दूसरा जन्म दो, ताकि हम अपना सुधार कर सकें l 


'शरण में आये हैं हम तुम्हारी,
दया करो हे दयालु भगवन् ।'



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