कर्म ही जीवन है

            कर्म की कसौटी है:- प्राणियों का उत्थान संसार एवं विश्व का कल्याण । जब आत्मा 7ार इन्द्रिय तीनों का योग होता है तभी कोई कर्म सम्पन्न हो पाता है। इन्द्रियां मन से संयुक्त होकर ही क्रियाशील होती हैं । मनुष्य-जीवन सुखदायी सकर्म करने के लिये ही उपलब्ध हुआ है। कोई भी मनुष्य एक क्षण भी निष्क्रिय नहीं रहता है। उसके अन्तःकरण में, चिन्तन में, हर समय कुछ न कुछ कर्म तो चलता ही रहता है। अवचेतन मन में समाई हई प्रकृति से प्राप्त अपने स्वभाव से परवश हुआ भी वह कर्म तो करता ही रहता है अच्छे बुरे कर्मों के अच्छे बुरे फल को भोगना तो निश्चित है । बिना भोगे उन कर्मों का क्षय भी नहीं होता ।


सामान्यतः कर्म दो प्रकार के होते हैं:


            १) सांख्य (ज्ञानयोग)- जिसमें कर्मों का संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रियों और शरार द्वारा हान वाले संपूर्ण कर्मों में कर्त्तापन का त्याग, तत्त्व-ज्ञान द्वारा मोह का निराकरण, आत्मा-विषयक निश्चित ज्ञान का नाम सांख्य है।


            २) निष्काम (कर्मयोग)- समत्वबुद्धि से भगवत्-अर्थ कर्मों का करना, कर्तव्य समझकर बिना फल की कामना के सब प्राणियों के हित में कर्मों को संपादित करना, भगवत्-स्वरूप का मनन करना -ये सब निष्काम-कर्म' हैं । निष्काम-कर्म साधन में सुगम है, इसलिये श्रेष्ठ भी माना जाता है जो ज्ञानयोग एवं कर्मयोग को एक समान देखता है, वही यर्थाथ देखता है, क्योंकि दोनों के ही फलस्वरूप परब्रह्म परमात्मा की ही प्राप्ति होती है।


             मीमांसा भी कर्मकाण्ड में विश्वास करता है । यज्ञादि कर्म से पुण्य अर्जित कर स्वर्ग का आनन्द भोगना एवं पुण्य क्षीण होने पर वापस धरती पर आकर पुनः सुकर्मों का संग्रह करना ही मीमांसा के कर्म की परिभाषा है । भगवत्गीता, अध्याय -९, श्लोक -२१ में भी ऐसा ही कुछ विवरण है। परमेश्वर ने मानव-देह और उसके अवयव कर्म करने के लिये ही दिये हैं । अतः परमात्मा को हमारे लिए कर्म-मार्ग अभीष्ट है, कर्म-त्याग नहीं । हमें अपने जीवन को कर्म-प्रधान बनाना चाहिये जीवन का प्रत्येक क्षण व्यर्थ गँवाने के लिये नहीं है । समय को नष्ट करना सबसे बड़ा अपराध है, उससे जीवन निरर्थक हो जाता है । अगर आलस्य के वशीभूत होकर हम अपने देहावयवों को निकम्मा बना देते हैं तो कालान्तर में वे अवयव काम करने की शक्ति ही खो बैठते हैं (जैसे- हाथ पैर इत्यादि) l 


                                     "ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराणं यजुषा सह ।
                                     उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविधितिः॥
                                                                                                       -अथर्ववेद, काण्ड-११, सूक्त-७,मन्त्र-२४॥


           अर्थात परमेश्वर ने सब उत्तम कर्म, वेद आदि शास्त्र और सारे सांसारिक पदार्थ मनष्य के सुख के लिए प्रकट किये हैं। ऋग्वेद में स्तुति-विधायें, सामवेद में मोक्ष- ज्ञान, यजुर्वेद में विद्वानों का सत्कार, अथर्ववेद में आनन्दप्रद कर्म, पुराणों में पुरातन वृत्तान्त, आकाश में वर्तमान सूर्य के आकर्षण में ठहरे हुए सब गतिमान लोक-यह सब परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं । 


            कुछ लोग कर्म करने में व्यस्त रहते हैं और कुछ लोग उनके कर्मों पर आराम का जीवन गुजारते हैं । हमारे भारतीय परिवारों में यह प्रथा बहुत प्रचलित है, जहाँ सारा परिवार कर्महीन होकर एक ही कर्ता पर निर्भर रहता है।


             हमें कर्म भी भद्र करने चाहिये, जिनसे सुख प्राप्त हो एवं सबका कल्याण हो । इस जगत् में उत्तम शिक्षा, नम्र स्वभाव, सत्य धर्म, योगाभ्यास, उचित आहार-विहार, मीठी वाणी, सहानुभूति एवं करुणा, विज्ञान का सम्यक् ग्रहण करना, परोपकार, विद्या की प्राप्ति, अविद्या की हानि, उत्तम रीति से धन का लाभ, दरिद्रता का विनाश- इस तरह के कर्म जीवन में आवश्यक हैं जीवन में कर्म बुद्धिपूर्वक, विचारपूर्वक, यज्ञभावपूर्वक, परमार्थभाव से लोकहितार्थ कर्म (राजा जनक की भांति), अनासक्ति पूर्वक कर्म, धैर्यपूर्ण , विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित न होने वाले कर्म- ये सम्पूर्ण कर्म मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाते हैं । श्रेष्ठ पुरुष जो-जो कर्म करता है, अन्य पुरुष उसके अनुकूल ही वर्तते हैं । विद्वान् लोग सब ऋतुओं में योग्य सामग्री द्वारा यज्ञ करके श्रेष्ठ कर्म करते रहें और आसक्ति वाले अज्ञानियों से उचित कर्म कराते रहें, क्योंकि श्रेष्ठ कर्म समाप्त कर लेने वाले ही आनन्द पद के अधिकारी होते हैंयज्ञ भी एक उत्तम कर्म है यज्ञ एवं दान आदि शुभ कर्म करने वालों के चित्त और आत्मा दृढ़ संकल्पी एवं बलवान होते हैं ।


"यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति,
यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते" -सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम समुल्लास ।।


          जीव जिसका मन से ध्यान करता है उसको वाणी से बोलता है, जिसको वाणी से बोलता है उसको कर्म से करता है, जिसको कर्म से करता है उसी को प्राप्त होता है । इस मन्त्र में मन, वाणी और कर्म तीनों की मधुरता का वर्णन है ।


           वे ही मनुष्य असुर, दैत्य, राक्षस तथा पिशाच आदि हैं जो आत्मा में और जानते, वाणी से और बोलते और करते कुछ और ही हैं । वे कभी अविद्यारूप दुःखसागर से पार हो आनन्द को प्राप्त नहीं होते । परन्तु जो आत्मा से मन, वाणी और कर्म से निष्कपट एक सा आचरण करते हैं वे ही आर्य सौभाग्यवान् सब जगत् को पवित्र करते हुए इस लोक और मरने के बाद परलोक में भी अतुल सुख भोगते हैं।


         विवार कर्म के उद्गम होते हैं । जब विचार उच्च होंगे तो कर्म भी उच्चतर होते चले जावेंगे। अपनी दुर्बलताओं को पहचानकर, उससे ऊपर उठने का अभ्यास डालना और लक्ष्य प्राप्ति में जुट जाना ही उच्च कर्म है।


            सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन, कर्म से कभी भी पापकर्मों को न करे । सन्ध्या के मन्त्रों में इसको "अघमर्षण" का नाम दिया है। क्योंकि भगवान सबको अन्तर्यामीरूप से सर्वदा देखता रहता है।


                                 "याद्राध्यवरुणो यो निमत्यमनिशितं निमिषि जर्मुराणः ।
                                विश्वो मार्ताण्डो व्रजमा पशुत्स्थशो जन्मानि सविता व्याकः ॥"
                                                                                                                                 ऋग्वेद, मंडल-२, सूक्त-३८, मन्त्र-८॥


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